धम्म प्रभात -आदर्श दंपति
"धम्म चरे सुचरितं,
न तं दुच्चरितं चरे ।
" धम्मचारी सुखं सेति,
अस्मिं लोके परम्हिच ।।"
नकुलमाता और नकुलपिता दोनों श्रेष्ठी कुलों में जन्मे और सुखी गृहस्थ दंपति का जीवन जी रहे थे। उनका एक नकुल नाम का पुत्र था। इसलिए वे इन्हीं नामों से जाने जाते थे। वे दोनों पिछले ५०० जन्मों में भगवान के माता-पिता रहे। भगवान से पहली बार मिलते ही पूर्वजन्मों के अभ्यास के कारण भावुक होकर भगवान को 'आओ पुत्र! आओ पुत्र!' कह उठे। वे दोनों भगवान के प्रमुख श्रावकों में हुए।
दोनों का विवाह कम उम्र में हो गया था। नकुलपिता ने कहा, जीवनभर मैंने नकुलमाता को छोड़, किसी अन्य नारी का मन में भी चिंतन नहीं किया, शारीरिक संबंध होना तो बहुत दूर की बात है। नकुलमाता ने भी कहा कि आजीवन किसी परपुरुष को मैंने मन में भी स्थान नहीं दिया, शरीर का संबंध होना तो दूर की बात है। दोनों का जीवन 'कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी', यानी काम-संबंधी मिथ्याचरण (व्यभिचार) से सतत विरत रहना था। फिर भगवान के संपर्क में आने पर कल्याणी विपश्यना विद्या द्वारा काम-वासना के विकारों का जड़ से उन्मूलन कर लिया। दोनों पति-पत्नी 'अब्रह्मचरिया वेरमणी', यानी अब्रह्मचर्य से विरत रहते हुए, अखंड ब्रह्मचर्य का जीवन जीने लगे।
एक बार नकुलपिता बहुत बीमार हुआ और भगवान के दर्शनों के लिए उनके पास गया। भगवान ने कहा, "नकुलपिता तुम्हारा शरीर भले अस्वस्थ हो, पर मन स्वस्थ रहना चाहिए।" नकुलपिता ने कहा, "ऐसा ही है भगवान।"
नकुलपिता को बहुत बीमार देख कर नकुलमाता ने उसे आश्वासन देते हुए कहा, "आप रंचमात्र भी चिंता मत कीजिए। चिंता के साथ प्राणों का त्याग न करें। चिंता के साथ प्राणों का परित्याग दुःखद होता है। भगवान ने भी चिंता के साथ प्राणों के परित्याग की निंदा की है।"
नकुलमाता ने परिवार-पालन के लिए अपनी कार्य-दक्षता, त्रिरत्न के प्रति अटूट श्रद्धा और अपने शील की अखंडता के बारे में अपने पति को आश्वस्त किया।
स्वस्थ होने पर नकुलपिता भगवान के पास गया, तब भगवान ने नकुलमाता की प्रशंसा करते हुए कहा, "हे गृहपति, तुझे बड़ा लाभ है। तू बड़ा भाग्यवान है जो तुझे नकुलमाता जैसी गृहपत्नी मिली है, जो तुझ पर अनुकंपा करने वाली है, जो तेरी हितचिंतक है, तुझे सांत्वना और सदुपदेश देने वाली है।"
इस अवसर पर भगवान ने आदर्श दांपत्य जीवन पर एक सदुपदेश दिया, "जो पति-पत्नी दोनों उदार होते हैं, संयत होते हैं, धर्मानुसार जीवन जीते हैं, परस्पर प्रिय बोलने वाले होते हैं, उन्हें आसानी से प्रचुर अर्थ की प्राप्ति होती है। दोनों सदाचारियों के दुश्मन दुःखी होते हैं। इस लोक में धर्म का पालन करके वे दोनों समानशीली तथा समानव्रती होकर साथ-साथ आनंदित होते हैं और देवलोक में भी एक साथ आनंदित होते हैं।"
भगवान ने जिन गृहस्थ श्रावकों को अग्र की उपाधि दी,उनमें ये दो भी थे। नकुलमाता और नकुलपिता को विश्वसनीय शीलवंतों में अग्र की उपाधि दी।
नमो बुद्धाय
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