हम गुले कोह हैं
ख़ुश्कसाली में खिल जाएंगे
ख़ुश्कसाली में खिल जाएंगे
रेशमी हैं बूटे तुम्हारे
तुलु-ए-आफ़ताब^ में जल जाएंगे,
तुलु-ए-आफ़ताब^ में जल जाएंगे,
~ इस्लाम शेरी
(*पहाड़ी फूल, ^सूर्योदय)
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(*पहाड़ी फूल, ^सूर्योदय)
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रस्मों को निभाने की आदत क्यूँ लूँ भला
तेरे करीब आने की इजाज़त क्यूँ लूँ भला
तुझ तक जो पहुँचना है तो रुकना नहीं मुमकिन
मैं थक के कहीं भी छाँव में राहत क्यूँ लूँ भला.. .
मैं थक के कहीं भी छाँव में राहत क्यूँ लूँ भला.. .
~ सारांश
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तीसरा शख़्स मसअले का सबब होता है
तीन मिसरों का कोई शेर नहीं होता साहेब
~ नामालूम
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क्या ख़बर थी कि हवा तेज़ चलेगी इतनी
सारा सहरा मिरे चेहरे पर बिखर जाएगा
~ नामालूम
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ये लीजिए सोच अपनी....
.... मुझे गिरी हुई मिली है.!!!
~ नामालूम
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दिल की सोहबत मुझे हर वक्त जवां रखती है
अक्ल के साथ चला जाऊं तो बूढ़ा हो जाऊं।
~ नामालूम
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वो तू ही है जो चला गया
वो तू ही है जो रह गया
एक दिल है जो बिखर गया
एक धड़कन है जो रह गई
~ नामालूम
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हर किसी से बिछड़ गया हूँ मैं
कौन दिल में मिरा मलाल रखे
शहरे-हस्ती का अजनबी हूँ मैं
कौन आख़िर मेरा ख़्याल रखे
कौन आख़िर मेरा ख़्याल रखे
~ जौन एलिया
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कभी तो होगी कोई आहट का़सिद के कदमों की
ये मेरा दरवाज़ा मुद्दतों से सूना-सा क्यूँ है।
~ नामालूम
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खुलेगी आँख तो समझोगे ख़्वाब देखा था
ये सारा खेल मिरी जान एक रात का है
~ नामालूम
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माना मैं तन्हा हूँ...
मगर इस कदर भी नहीं कि,
तुझे याद करूँ...!!
~ नामालूम
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ख़्वाब तो ख़ैर हम उस बज़्म से ले आए थे
लेकिन इस ख़्वाब की ताबीर कहाँ से आई
~ नामालूम
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क्या आप कर रहे हैं हिमाकत गजब भिया
दिखला रहे हैं शम्स को ही अदना सा दिया
जुगनू पकड़ के हाथ में इतरा रहे हो यूँ
जैसे कि पा लिया हो कोई ताजो तख्तियाँ
जैसे कि पा लिया हो कोई ताजो तख्तियाँ
~ नामालूम
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दाग़ वो अब थोड़े गहरे हो चले है
चेहरे को थोड़े से अंधरे में रखा जाए !!
~ नामालूम
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हुनर दे, असर दे, सबर दे या रब,
तेरे होने की हम को, ख़बर दे या रब...
~ नामालूम
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वो चेहरा किताबी रहा सामने
बड़ी ख़ूबसूरत पढ़ाई हुई
~ बशीर बद्र
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वही सुलूक वही भीख चाहता हूँ मैं...
वही फ़क़ीर हूँ कासा बदल के आया हूँ...
~ अकबर मासूम
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मैं जिस ज़ुबान में करता हूँ शायरी
भँवरे उसी ज़ुबाँ में फूलों के कान भरते हैं
~ सरदार सलीम
मैं जिस ज़ुबान में करता हूँ शायरी
भँवरे उसी ज़ुबाँ में फूलों के कान भरते हैं
~ सरदार सलीम
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गेसू-ए-यार का बल क्या जाने
कैसी होती है ग़ज़ल क्या जाने
जिसकी मुमताज़ नहीं है कोई
वो भला ताजमहल क्या जाने
~ सरदार सलीम
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